मुक्तक संग्रह भाग-दो
किसी को हार मिली यहाँ
किसी के हिस्से जीत रही।
वसुधैव कुटुंबकम की
जहाँ सनातन रीति रही।
जिंदगी का फ़लसफ़ा यूँ
आजकल उलझा हुआ है,
कलह से होती सुबह और
शाम सुलह में बीत रही।
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संकल्प सृजन का लेकर
कलम सिपाही चलता है।
अपने मज़बूत इरादों से
हर परिदृश्य बदलता है।
घोर अमावस में काली
रातों की स्याही छंटती है,
जहाँ में तब कहीं दीप
दीवाली का जलता है।
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जमी है अपनी आसमाँ है अपना।
कहने को सारा जहाँ है अपना।
समझने जाती है दृष्टि दूर तक,
नज़दीक कौन यहाँ है अपना।
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सोच भी सयानी है और सयाने हैं लोग।
कहने को तो सब जाने-पहचाने हैं लोग।
फ़ितरत क्या बदली इधर जरा-सी हवा की,
कल तक जो थे अपने आज बेगाने हैं लोग।
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लम्हा-लम्हा पढ़ लिया एक कहानी की तरह।
रख लिया दिल में उसे एक निशानी की तरह।
सुनहरी धूप के झरने-सा सहज दिन हो गया,
यादें बनी हैं सुरमयी-सी शाम सुहानी की तरह।
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किरदार कैसे-कैसे आजकल गढ़ रहा।
तोड़कर सीढियाँ वो शिखर पे चढ़ रहा।
जहाँ में देखिए सादगी का सबब,
शोरहत की पोथियाँ वो किश्तों में पढ़ रहा।
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जिस्म से रूह संबंध की पड़ताल कर।
वाज़िब है हक़ के लिए हड़ताल कर।
माना कि मुफ़लिसी ने मज़बूर कर दिया,
टूटती है कायनात भी इसी सवाल पर।
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घटाने व जोड़ने का तज़ुर्बा जो पा गया।
समझो सुर्खियों में उसे रहना आ गया।
कहने को तमाम उम्र वो नेकी के घर रहा,
फिर बदचलन हवाओं का साथ कैसे भा गया।
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तानाशाही चली गयी पर
अब भी ताना बाकी है।
कहीं-कहीं पूंजीपतियों का
अभी घराना बाकी है।
बुधुआ की लुगाई लगती थी
सारे गाँव की भौजाई,
चली गई सब शान-ओ-शौकत
महज़ तराना बाकी है।
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शबनमी होंठों का अहसास ग़ज़ल है।
प्रीति और प्रेम का आभास ग़ज़ल है।
महलों में रही जो अधिकार की तरह,
आज भाईचारे का विश्वास ग़ज़ल है।
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माँ बोली मीठी भाषा हमारी है हिंदी।
तुलसी,कबीर,रसखान दुलारी है हिंदी।
हो तुम्हें प्यार किसी और भाषा से मग़र,
“अमरेश”हमें प्राणों से प्यारी है हिंदी।
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परदे की परिभाषा देखो।
सब कुछ यहाँ खुलासा देखो।
अधिक चाहिए अगर तुम्हें कुछ,
खुद घर फूँक तमाशा देखो।
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अमरेश सिंह भदौरिया